मंगलवार, 17 अगस्त 2021

आजादी के मायने,,,,,जेंसा मैंने महसूस किया,

 बीते दो दिन पूर्व हमनें हर वर्ष की तरह स्वतंत्रता दिवस मनाया।,,,,इस दिन निःसन्देह हर भारतवासी अपने गौरवशाली इतिहास लिखने वाले महापुरुषों व सैन्य विभूतियों के शौर्य से गौरवान्वित महसूस करता हैं।


आजादी,,,,,का मतलब यह कतई नहीं होता कि हम राष्ट्र के प्रति अपनी जवाबदेही न समझें,,,,, देश बनता हैं प्रदेशों, महानगरों,कस्बों, गांव व मोहल्लों से ,,,,,,,,,,,जब यह सब कुछ राष्ट्र का अमूल्य अंग हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा हैं ,,,फिर भी हम सार्वजनिक संपत्ति को अपना समझने में सहज नहीं हैं। स्वच्छता हो या समृद्धि,विकास हो या पिछड़ापन ,,,,,,,जब तक व्यक्तिगत होगा वह राष्ट्र स्वतंत्र होकर भी समृद्ध नहीं कहा जा सकता।


हम इतिहास की बहस में उलझकर अपना वर्तमान स्वीकार ही नहीं कर पा रहें,,,,,,हैं। इतिहास को कोसकर हम वर्तमान की असफलता पर पर्दा डालने के आदि हैं। लोकतंत्र में जब किसी सरकार को जनमत दिया जाता हैं इसका मतलब भी यहीं हैं कि,,,,,जनभावनाओं पर खरा न उतरने की कीमत सत्तारूढ़ दल को सत्ता से उतकर चुकानी पड़ी।,,,,,,,फिर जिस सरकार को बहुमत मिला वह यह कहकर सफाई नहीं दे सकती कि,,,,,,,,यह तो पिछली सरकार में हुआ ?


बेरोजगारी,भृष्टाचार,महंगाई,,,,,,,एवं सरकार की नीतियों का आमजन पर क्या असर हुआ,,,,,,,,सरकार की इन सब पर राय क्या हैं ? ,,,,,,,,,,क्या कदम उठाए गए यह बताना भी सरकार की नैतिक जिम्मेदारी होती हैं। इसके विपरीत जो साहसिक निर्णय आपने लिए उनका श्रेय तो आमजन आपको जनादेश देने के साथ ही दे चुका हैं।


अब विषय आता हैं धर्म का,,,,,तो ,,,,,,राजनीति में धर्म,जाति, सम्प्रदाय ऐसे मुद्दे हैं जिनके जरिये बड़ी से बड़ी असफलता को छिपाने का सबसे कारगर व सरल मंत्र माना गया हैं। व्यक्तिगत आस्था ,,,,,,सार्वजनिक होते ही उन्माद पैदा करती हैं। कट्टरपंथ ,,,,,,,,,सदैव उस राष्ट्र की गरिमा का चीरहरण हैं जहां उसकी बुनियाद वासुदेव कुटुम्बकम या अनेकता में एकता के मंत्र  ,,,, पर टिकी हो।


किसी भी व्यक्ति,धर्म,सम्प्रदाय,,,,,,,,अथवा निजता,उसके संवैधानिक अधिकारों एवं उसकी राष्ट्रभक्ति पर संदेह व्यक्त करेंगें,,,,बार बार चोट करेंगे या टारगेट करेंगें तो वह अपने ही देश में "आजादी ",,,,कैसे महसूस करेगा ,,,,,इसे समझने की जरूरत कल भी थीं और आज भी हैं।


योगेश शर्मा,बनखेड़ी

रविवार, 26 जनवरी 2020

आपका राष्ट्रवाद,,,,राष्ट्रप्रेम,,,,,राष्ट्रभक्ति क्या हैं?



"जरूरी नहीं की गीता,कुरान,बाइबिल पर फूल चढ़ाकर माथा टेका जाएं,
जरूरत इस बात की हैं इन महान ग्रन्थों को आइना समझकर जीवन में उतारा जाएं।।"

राष्ट्रीय पर्व गणतंत्रता दिवस की सादर शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए अपनी बात शुरू करता  हूँ जिसे छात्रों एवं समाज को समझना बेहद जरूरी हैं। ऐसा मेरा मानना हैं। क्या वाकई हम अपने संविधान को समझने की स्थिति में भी नही हैं क्योंकि हमें समझाने वाले शायद तैयार नही हैं। देश की एकता एवं अखण्डता को अमर रखने सिर्फ नारों की नही बल्कि मजबूत इक्षाशक्ति की जरूरत हैं राष्ट्रीय तिरंगें झंडे के तीन रंगों के महत्व को समझने की जरूरत हैं जहां एक भी रंग को कम कर दिया जाए तो यह ध्वज अधूरा रहेगा। राष्ट्रीय गान जनगणमन के दौरान उस रोम रोम में उठने वाले उस अहसास को महसूस करने की हैं जो देशप्रेम की असीम ऊर्जा व जोश का संचार बढ़ा देती हैं।
" हरे रंग और भगवा के बीच का श्वेत रंग बना जाएं,
फिर गंगा और जमुना की तरह मिलकर दरिया को भरा जाएं।।"

 आजकल सोसल मीडिया पर तरह तरह के तर्क वितर्क अपनी बात मनवाने या सहूलियत के हिसाब से गढ़ दी जाने वाली अधूरी जानकारियां परोस दी जाती हैं और हम भी बगैर पड़ताल किये उसे सच मान लेते हैं। यही हाल इतिहास का हो चला हैं देश के शीर्ष नेतृत्व इतिहास को लेकर परस्पर द्वंद में उलझे हुए हैं और यही कारण हैं इतिहास की बहस में वर्तमान असंतुलित सा नजर आता हैं। यहां इस बात का ध्यान अवश्य रखना होगा भारत का इतिहास अनेकताओं में एकता के साथ विविधताओं के वावजूद एक सूत्र में बंधे रहने का अहसास कराता हैं जबकि वर्तमान परिदृश्य देखकर डर लगता हैं यदि एकता से अनेकता में बंटते चले गए तो इसके परिणाम भी खंड खंड होकर विकराल हो सकते हैं।
 जिम्मेदारी हमारी हैं युवाओं में देश का भविष्य हैं तो उस भविष्य के वर्तमान भी हम हैं। हम जिस जगह रहते हैं जिस जगह पैदा होते हैं और जो हमारी पीढ़ियों की कर्म स्थली है वह हमारी भारत माता हैं हमारा इसके प्रति चिंतन ही राष्ट्रप्रेम हैं फिर यहां के लिए हमारी क्या भूमिका हैं इसे तय करने की आवश्यकता हैं। जवाबदार नागरिक जिस दिन बनने की राह चुनेंगे राष्ट्रभक्ति उस दिन से शुरू हो जाएंगी। साक्षर हो जाना शिक्षित होने का सर्टिफिकेट तब तक नही माना जा सकता जब तक आप जागरूक नही होते। हमारे पूर्वजों को भले ही अक्षर ज्ञान कम रह गया हो पर उनका अनुभव उनका संघर्ष हमारे होने की नींव का पत्थर हैं। कुछ बेहतर करने से समाज,गांव का नाम रोशन होता हैं तो इस मंत्र को हम सब क्यों नही अपनाते आखिर क्यों हमारे जिम्मेदार स्वयं का ऐसा नही कर पाते जिससे नाम रोशन हो क्योंकि हम अवसरवाद के तले निजीहितों को ध्यान में रखकर अपनी राष्ट्रभक्ति तय करने लगें हैं।
देश की गौरवगाथा के किरदारों के योगदान और इतिहास  पर बहस की बजाय वर्तमान के धरातल पर हमारे नैतिक दायित्व पर आत्ममंथन करने की जरूरत हैं जरूरत हैं उस हकीकत को समझने की जिसमें जल,जंगल,जमीन,गाय,गंगा और इसके जुड़ी प्रकृति को सहेजने की मगर अफसोस हमारी बहस के मुद्दे कुछ और हैं जहां जिक्र रोजगार का भी नही हैं न युवा भविष्य का हैं न बात उन विषयों पर होती जिसमें गांव,कस्बे आत्मनिर्भर हों। खेल प्रतिभाएं हैं पर संसाधन नही है। तैरना चाहते हैं पर तैरने नदियों के घाट सुरक्षित नही है जानते हैं आत्मनिर्भर बनने स्वास्थ्य,शिक्षा,सड़क,आवागमन विकास का मूलमंत्र हैं पर आजादी के वर्षों बाद भी सक्षम बहस के यह मुद्दे ही नही हैं मेरा सवाल हैं मुझ जेंसे युवा के मन में चलता द्वंद राष्ट्रवाद नही तो क्या हैं ? तय आपको करना हैं आपका राष्ट्रवाद,राष्ट्रप्रेम,राष्ट्रहित क्या हैं। 

योगेश शर्मा,,,,,वंदे मातरम
 

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

शिक्षा की विरादरी का निर्धारण कौन करेगा ?

Sc/st एक्ट का जिन्न क्या गुल खिलायेगा जब दलित शब्द का राजनीतिकरण चरम को छू रहा है। जिन्न जो बोतल में बंद था जातिवाद की राजनीति  से समाज ऊब रहा था इस जिन्न के बाहर निकलते ही फिर जातिवाद की अघोषित जंग छिड़ गई। हकीकत इससे अलग है जिस वर्ग ने शिक्षा को महत्व दिया और अवसरों के लिए आगे बढ़ने संघर्ष किया वह आगे निकल गए। रहन सहन और जीवन शैली में बदलाव आया। जबकि जिस वर्ग ने मिले अवसर और कानूनी संबल का गलत इरादों के लिए उपयोग किया उसका दोहन औरों ने हथियार के तौर पर किया। हकीकत में sc/st एक्ट के वर्तमान स्वरूप का विरोध इस हथियार के कारण पैदा हुआ डर है। जिस दबे,कुचले,उपेक्षित वर्ग से शिक्षित लोग निकले उन्होंने उस समाज को नई उम्मीद,सम्मान और साहस देने अग्रजों की भूमिका निभाई।

"दलित" शब्द का आशय समझे बिना एक सूत्र में इसे परिभाषित करना राजनीति के लिए सरल जरूर हो जाता है क्योंकि इसी शब्द के आसरे राजनीति शिखर तक पहुंची है यह प्रतीत होता है।  इतिहास में शोषित वर्ग का शोषण हुआ क्योंकि इस तबके से शिक्षा कोसों दूर खड़ी थी इसलिए आज भी उन अहसासों के जख्म विद्रोह के रूप में देखने मिलते है। बाहुबलियों ने इस अशिक्षित तबके का खूब दोहन किया पर यह कहना गलत होगा कि उच्च समाज के कमजोर लोग इस व्यथा से अछूते थे। एक विचार यह भी है कि उच्च शिक्षित वर्ग जो इसी तबके से आता है वह दलित कैसे क्योंकि उसके अपने संघर्ष ने दलित कुंठा पर विजयश्री हासिल कर अपना स्थान बनाया । क्या कारण है कि जो दलित वर्ग के शीर्ष नेतृत्व बनकर उभरे वह स्वयं को दलित कहलवाकर क्यों उस योग्यता का अपमान करने आमदा है जिनका अनुकरण मात्र ही इस तबके का भविष्य बनाने सक्षम है।  सरकारें वोट बैंक पर नजर गड़ाएं सुप्रीम कोर्ट के फैंसले पलटने जो आतुरता दिखाती है और बगैर किसी विरोध के अन्य राजनीतिक दल जिस राजनीतिक भाईचारे का दर्शन कराते है  यह भी भारत में बदलाव की आहट तो है। यह अलग बात है कि नए मुद्दे ने विकास,महंगाई से इतर एक नई बहस छेड़ दी है जिसके दूरगामी परिणाम भयावह होंगें इस आशंका को खारिज नही किया जा सकता।
शिक्षा का स्तर सुधरा तो हालात बदले,,,,,, नही बदला वह तबका जो आज भी शिक्षा के महत्व को नही समझा और इस वर्ग में सिर्फ उन विरादियों को रखा जाना भी गलत है जिसके इर्द गिर्द दलित शब्द फल फूल रहा है। सवर्ण भी शिक्षित नही है वहां आज भी जातिवाद प्रतिष्ठा निर्धारण करता है। ठीक वैसे ही जेंसे कर्मकांडी न होते हुए ब्राह्मणत्व का पालन न करते हुए लोग स्वयंभू पंडित कहलाने लग गए। कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था उस दौर में भी थी और आज भी जीवित है कर्म प्रधान समाज शरीर के महत्वपूर्ण अंग माने गए जिसमें एक वर्ग रूपी अंग भी आहत हुआ तो पूरा शरीर शिथिल हो गया मतलब किसी एक तबके की भूमिका भी सामाजिक ढांचे में महत्वपूर्ण है वर्ण व्यवस्था उस दौर में थी और आज भी है पर शिक्षा ने असमानता पर प्रहार किया परिणाम आये शिक्षा के महत्व से कुछ हद तक अंधेरे छटे पर कुटिल राजनीतिक चालों ने इस असमानता को कायम रखने फिर दांव फेंके  योग्यता हारती रह गई और समाजवाद जीतता चला गया इसका उल्टा कर दीजिए तो आज का सामाजिक  परिवेश पटल पर स्वतः ही परिलक्षित हो जाएगा। गरीब गरीब रह गया अमीर और अमीर होते चले गए पर इन दो पाटों से जो जूझ गया वह महान हो गया और महानता की न कोई जाति होती और न ही धर्म ठीक वैंसे ही जेंसे निम्न जाति का उच्चशिक्षित डॉक्टर उच्च वर्ग के मरणासन्न अवस्था में उस व्यक्ति अथवा परिवार के लिए भगवान होता है। शायद इस योग्यता और काबिलियत का अहसास भी दलित और सवर्ण के भंवर में उलझ कर रह गया। कल्पना कीजिये जिस वक्त एससीएसटी कानून बना या आरक्षण निर्धारित हुआ क्या इसे अमल में लाने उच्च शिक्षित वर्ग का चिंतन नही रहा होगा ? क्या सकारात्मक सोच नही होगी कि निम्न दबा,असहाय,पीड़ित,शोषित,अति गरीब वर्ग को कैसे समाज में अवसर मिले यह इसलिए क्योंकि उस दौर में उच्च पदों पर अमूनन सवर्णों का एकाधिकार अधिपत्य था। ऐसे बहुत से उदाहरण है जब शोषित समाज का व्यक्ति संघर्ष करते हुए लोकतंत्र का हिस्सा बना तो आगे बढ़ता चला गया जबकि अशिक्षित व्यक्ति अवसरवाद के चलते सिर्फ कठपुतली बनकर रह गया  विचार कीजिये शिक्षा से सम्मान है या सम्मान की लालसा की हठधर्मिता की वजह से शिक्षा आज भी अधूरी है और जब जब अधूरापन अस्तित्व में आएगा देश गृहयुद्ध की ओर  रुख करेगा। भारत माता की जयघोष में बुलंदी का अहसास होता है तो उसके बेटे होने का अहसास जगाइए और बड़ी और सकारात्मक ऊर्जा से लबरेज इस घृणा,उपेक्षा,कुंठा का कारक "दलित",,,,,,,अहंकार,अभिमान से सने "सवर्ण" का चोला त्याग करते हुए शिक्षित समाज और शिक्षा की रौशनी से इन अँधियारो को हरने का साहस कीजिये।

सादर वंदे मातरम,,,,,,,योगेश शर्मा,बनखेड़ी

बुधवार, 22 अगस्त 2018

ट्रेन स्टॉपेज का संघर्ष एक आत्मकथा एक व्यथा


"घर से निकलें की कोई तो शुरुआत करें,
मंजिल मिलें न मिलें खुद को खुद से क्यों निराश करें।।"
आप बीता सच,,,,,,,         ट्रेन स्टॉपेज एक ऐसी जिद जिसने वह सब कुछ अहसास कराया जिसे सीखने उम्र गुजर जाती है। कहाँ झुकना है,कहाँ अड़ना है,कहाँ विनम्र होकर जीत के लिए हार जाना है। और कहां किसकी सलाह मानना है,किस पर भरोषा किया जा सकता है तथा किसकी बातें गम्भीरता से लेना है। बहुत कुछ सीखा सबसे खास यह कि अपनी सरजमीं के लिए दिल से लड़ने का सौभाग्य किसी किसी नसीब वाले को मिलता है। 2015 अक्टूबर माह में पहली बार दहलीज से निकलकर बनखेड़ी ट्रेन स्टॉपेज लेने की जिद की तरफ पहला कदम बढ़ाया था। इससे पूर्व छोटे भाई पंकज खटीक ने अच्छी पहल करते हुए मीटिंग बुलाई थी पर वही राग 3 से 4 ट्रेन की बेतुकी मांग जो संभव ही नही क्योंकि पहली लड़ाई रेवेन्यू,पर्याप्त यात्री,बड़ा क्षेत्र होने का अहसास रेलवे को कराना था। तब जबकि रेलवे के पास उस समय बनखेड़ी ग्राम पंचायत एवं पुरानी आबादी की छोटी स्टेशन की कुंडली थी जिसे अपडेट कराना भी चुनोती से कम न था। उस दिन ऐसा लगा भीड़ के साथ निर्णय पर नही पहुंचा जा सकता बल्कि क्रमिक और ठोस लड़ाई लड़नी होगी। यहाँ से इस मांग को वजनदार बनाने प्रयाश किये। परंपरागत तरीकों से अलग युवाओं को साथ लाने बार बार बनखेड़ी के सम्मान के जरिये कोशिश की पर राजनीति के  इरादों को टोटलने में हार गए क्योंकि हर जगह विचारधारा की बेड़ियां लोगों को कदम पीछे खींचने मजबूर करती है। एक वजह यह भी थी बनखेड़ी का नेतृत्व इतना असरदार नही रहा कि उसपर भरोषा किया जाये। जिनपर भरोषा किया जा सकता था वे आगे ही नही आना चाहते थे। लड़ने आमदा थे उनकी कोई पहचान नही थी और हम उसी श्रेणी के  चंद लोग कोशिश करते रहें लोगों को जोड़ने की। लड़ाई और संघर्ष को निर्णायक बनाया जाये पर पीछे चंद लोगों के अलावा मायुष करने असरहीन और बगैर सकारात्मक सोच लिए भीड़ खड़ी थी जो साथ होकर भी साथ देने की गारंटी नही थीं। सांसद महोदय द्वारा संसद में मांग उठी तो कुछ उम्मीद बंधी पर समय निकलता रहा परिणाम नही मिले मुद्दे को मरने से बचाना था सबको बहुत टटोला पर नतीजा उसी तरफ जाता दिखा जहां किसी एक आदमी के इर्द गिर्द मांग सिर्फ मांग ही रह जाती। संघर्ष समिति के जरिये कुछ कदम आगे बढ़े पर जब सार्वजनिक मीटिंग से जो कुछ निकला वह वही निर्णय थे जो कई बार किये जा चुके थे। उस निर्णय को मैं स्वीकार नही कर सका और अपनों से बगावत कर डाली क्योंकि संसद में उठी मांग के दौरान उस गुस्से का जिक्र था जिसे बनखेड़ी ने कभी जताया ही नही,,,,,
"वादे थे पर दावे अधूरे निकलें,
इरादे सियासत की ओर जाते निकले।।
आरजू थी सभी की पर पहल कौन करें,
माँ का सिर पर हाथ था फिर किसी से क्यों डरें।।"
निर्जला व्रत का निर्णय लिया खुशकिस्मती से परिवार इस निर्णय में मेरे साथ था। जब अपने इरादे जाहिर किये तो अपनों की नाराजगी,डर पैदा करने साजिशें,श्रेय लेने के लांछन लगने शुरू हुए जो जिसका अहसास और आशंका थी। पर मित्र,बड़े भाई,शुभचिंतक बार बार होंसला दे रहे थे तब तक वाकई ट्रेन स्टॉपेज की बातें महज हवाहवाई थी यहां तक जबलपुर रेल मंडल ने प्रस्ताव भी नही दिया था। 10 दिसंबर की सुबह मेरे लिए बहुत खास थी क्योंकि बस्ती के लिए संघर्ष करने एक तरफ उत्साह था तो दूसरी तरफ राजनीत से इस मुद्दे को बचाने का दवाव,,,,,,,,,,,,अनशन शुरु हुआ तो वे पांच लोग मेरे साथ खुलकर आये जिन्होंने अपनी मानसिकता को खूंटी पर टांगते हुए जनहित में संघर्ष के साथ आना पसंद किया। संकटमोचन हनुमान जी के समक्ष संकल्प लिया तो इरादे और फौलादी बन गए। कुछ बड़े कद के लोगों ने और हमारे बड़े भाइयों ने राजनीति से हटकर गैर राजनीतिक अनशन का माहौल बनाने अहम भूमिका निभाई।   एक दिन गुजरा तो दूसरे दिन हमें उन सबका साथ मिलना शुरू हुआ जिन्होंने हमें ईमानदार समझा। बाजार बंद हुआ व्यापारी साथ खड़े होते चले गए। निर्जला अनशन पवित्र था इसलिए पूरे 50 से 52 घँटे संकल्प के साथ पूरा किया। इस बीच उन घटनाओं का जिक्र नही करूँगा जो मेरे व्यक्तिगत जीवन मे भविष्य की बाधा साबित होती नजर आईं। रेल प्रशासन ने पहली बार बनखेड़ी को और मांग को गम्भीरता से लिये। जबलपुर मण्डल ने उसी दिन जबलपर नागपुर अमरावती ट्रेन के प्रस्ताव को रेलवे बोर्ड भेज दिया। बस यहां मलाल इस बात का रहा यदि उस दौरान वे लोग जो मेरे निर्णय को व्यक्तिगत अपमान या नेतागिरी समझ रहें थे साथ खड़े हो जाते तो उसी दिन यह मांग पूरी हो सकती थी। सांसद की मांग के समर्थन में बैठे थे उम्मीद और यकीन था सांसद मौके पर पहुंचकर हमारा समर्थन करते हुए निर्णायक पहल करेंगें पर यह नही हो सका बहुत से कारण थे बहुत से लोगों की उस वक्त नकारात्मक भूमिका विभीषण सी क्यों थी यह सवाल मेरे सामने आज भी है और हमेशा रहेगा। खैर यह हमारी बड़ी जीत थी जिससे उम्मीद मिल चुकी थी,,,,,,,,अब बारी सांसद महोदय की थी जिन्हें इस अनशन ने मजबूती दी जिससे इस मांग को उन्हें रेलवे के समक्ष असरदार बनानी थी क्योंकि संसद भवन में उनकी मांग उनके लिए भी प्रतिष्ठा थी। सांसद को पूरा श्रेय जाता है क्योंकि वे बड़े और ऊर्जावान जनप्रतिनिधि है यही कारण है तमाम कोशिशों के वावजूद उनके प्रति सम्मान भी बड़ा और उनका स्नेह भी मिला। इन सबके बीच उन किरदारों के जिक्र भी करना चाहता हूं जिन्होंने हर जोखिम से लड़ने साहस दिया,बगैर किसी नाम की चाहत के निर्जला अनशन के वक्त खुद को झोंक दिया बहुत मेहनत की। यहां तक कड़कड़ाती ठंड में उनकी आंखों से नींद गायब थी वे घर मे रहते हुए हमारे लिए चिंतित थे। हर वक्त हमारे स्वास्थ्य को लेकर परेशान थे ऐंसे वे लोग बहुत संख्या में थे जिनका नाम नही लूंगा पर उन तक मेरा प्रणाम,आभार,धन्यवाद अपने आप पहुंच जाएगा परिणाम सामने है बनखेड़ी क्षेत्र की बहुप्रतीक्षित मांग आज पूरी हुई। ट्रेन के रुकते ही एक सपना पूरा हुआ। अब अगर बेहतर रेवेन्यू मिलेगा तो अन्यअगली डाउन तरफ से रात्रिकालीन ट्रेन भी मिल जाएगी क्योंकि दरकार दोनों दिशाओं से रात्रि के वक्त जुड़ने की है।
"ये और बात है कि वो कोशिश गुजरा जमाना हो गई,
कोशिश करने वालों की इक जिद,तमन्ना पूरी हो गई।।"
भले आज उस अनशन की चमक राजनीतिक मंच के चलते दब गई हो पर यह इतिहास बनकर रहेगा कि कभी जनहित के लिए आम आदमी जिद्दी बनकर अड़े थे। भविष्य में जनहित के लिए लड़कर मकसद हासिल करने उन किरदारों को मजबूर होना होगा जो राजनीति को प्रतिष्ठा मान बैठें। संदेश जैन जो सत्ता पक्ष की पार्टी के युवा है उन्होंने इस संघर्ष के जरिये जनहित से जुड़ने साहसी कदम उठाया,पंकज खटीक जो शुरू से अंत तक बखूबी प्रतिनिधित्व करते रहें,प्रदीप पलिया एक ऊर्जावान युवा जिसने क्षेत्र की लड़ाई में साथ खड़ा होना ज्यादा बेहतर समझा,जितेंद्र भार्गव एक जुझारू और संघर्षशील किसान नेता जिसने सदैव इस मुहिम में सहयोग किया,घनश्याम कीर बगैर किसी नाम की चाहत के पूर्ण रूपेण निर्जला अनशन किया,गेंदीलाल पटैल जो अन्य राजनीतिक दल के उभरते नेता है उम्र में हमसे बड़े है पर राजनीति से दूर शानदार भूमिका निभाई,गजेंद्र पटैल छोटा भाई और शानदार निडर पत्रकार जिसने खामोशी से कुशल रणनीति बनाने भूमिका निभाई,विशेष भार्गव एक ऐंसा युवा हरफनमौला किरदार जिसने अपनी जॉब से तीन दिन अवकाश लेकर अनशन के प्रबंधन की भूमिका निभाई,निरंजन शर्मा जो रात को चिंतित होकर हमारे साथ आकर बैठ जाया करते थे और हमारे स्वास्थ्य और किसी अप्रिय घटना को लेकर चिंचित रहते और लगातार सावधान करते थे। एक और किरदार ओम प्रकाश सातल जिन्होंने रेलवे से जुड़ी जानकारियों से लगातार अवगत कराते हुए कागजी कार्यवाही में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इन मिले जुले प्रयाशों से मेहनत रंग लाई है पर अभी ट्रेन के स्थायी ठहराव तक जिम्मेदारी सभी को रेवेन्यू बढ़ाने मदद के रूप में करनी होगी।
काफ़िलें बने वो घर से निकलते रहें,
रहें पर्दे के पीछे पर हमारे खातिर दुआ करते रहें।।
  वे लोग है जिनके साथ और समर्थन के बगैर मेरा साहस दम तोड़ देता पर इन साथियों को बहुत बहुत विन्रम आभार देने का समय आ गया। फिर किसी संघर्ष में बगैर राजनीति के लड़ने का जज्बा कायम रहें यह शक्ति परमात्मा देता रहें।
मित्र,यार,बड़े भाई,परिवार,नगर एवं वे महिलाएं जिन्होंने लोगों को घर से निकलकर संघर्ष का गवाह बनने प्रेरित किया वे सब इस जीत के प्रथम हकदार है।
दिल भी दुःख जाते है,कुछ अपने छूट जाते है ,,,,,,,
महफूज रहें बस्ती की आबरू इससे बड़ा धर्म नही है।।
अंत में माफी चाहता हूं जिन अपनों का इसलिए दिल दुखाया क्योंकि कई बार निर्णय भावनाओं में नही बल्कि रणनीति के लिए लेने होते है। रणनीति जब क्षेत्र की भलाई के लिए बनाई जाएं तो गलत नही होती न इरादे गलत होते। मांग को चर्चा और सुर्खियां मिलें इसलिए योजनाबद्ध विरोध भी रणनीति का हिस्सा होते है यही वजह है जोखिम लेना अच्छा होता है जब परिणाम क्षेत्र के हित मे आने की गारंटी हो और यह हुआ है कम से कम हजारों लोग जो वर्षो से इस सुविधा के आभाव में कष्ट उठाते थे वह आज खुश है और शुक्रिया उस ईश्वर का जिसनें इस संघर्ष में एक किरदार निभाने का सुअवसर दिया। इस खुशी को व्यक्त करने का मजा मौन और गुमनामी में लेना चाहते है बनखेड़ी अगर मॉ है तो इस रिश्ते से इस जीत की हकदार बनखेड़ी ही है। धन्यवाद  ,,,,,,,
साभार - योगेश शर्मा बनखेड़ी

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

इस अंधेरें का तिलिस्म कौन तोड़ेगा ????

योगेश शर्मा - देश शोक में डूबा हुआ है क्योंकि राजनीतिक आदर्श का वो सूरज अस्त हो चुका है अब कृत्रिम रोशनी से अंधेरा भले छट जाए पर अंधेरें का तिलिस्म कौन सा चिराग तोड़ेगा यह प्रश्न तो जरूर उठेगा और चिंतन भी करना ही होगा। अपने राजनीतिक जीवन में देश और लोकतंत्र को पार्टी से ऊपर रखने वाले अटल बिहारी बाजपेयी वर्तमान राजनीति परिदृश्य को आइना तो दिखा गए। यह बात हर जहन में है  अटल क्यों सर्वमान्य नेता कहलाएं ? संसद की मर्यादा को जीवित रखने अटल सत्य तब भी गौरवशाली रहा और अब जबकि  दिवंगत आत्मा की अमिट आवाज  गूंजते शब्दों से अब भी सदन स्वयं को गौरवशाली महसूस करेगा।विपक्ष को वह आदर सम्मान जो अटल युग में परंपरा बना क्योंकि तब की भाजपा और आज की भाजपा के बीच बड़ी लकीर है जो भेद करने विवश करती है। अटल बेबाकी से स्वीकार करते थे कि आजादी के बाद भारत तेजी से आगे न सिर्फ बढ़ा बल्कि संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र को सदैव गौरवांवित होने अवसर पैदा करने जन्मदाता भी बना। अटल ने विपक्ष में रहते हुए सदैव कमियों को लेकर प्रहार भी किया और लोकतंत्र के प्रहरी भी बने पर स्वर्णिम इतिहास के वे पन्ने जिनसे भारत का निर्माण हुआ उनकी व्याख्या करना कभी न भूलें।
सरकार आई गईं,राजनीतिक परिदृश्य कई बार बदला भी,गिरकर बार बार संभलें भी। लाल किले की प्राचीर से अटल ललकारे भी और देश की आवाम को बातों बातों में नसीहत भी दी,समकालिक सरकारों की कमियां भी गिनाई और पीठ थपथपाकर अहसास भी कराया देश से बढ़कर कोई नही। संकटकाल में साथ भी खड़े हुए और भारत की गरिमा को हिमालयी ऊंचाई भी दी। यह वह दौर था जब भाजपा ने हिंदू और हिंदुत्व का मतलब भी बताया और सर्वधर्म समभाव की पैरवी भी की। हिंदू होने पर फक्र भी जताया और अन्य धर्मों के प्रति नफरत के ढोंग से भी परहेज किया।

वर्तमान भाजपा आधुनिक होकर खड़ी हुई जहां भगवा का जिक्र भी है और आरक्षण और जातिवाद के जिन्न के प्रभाव में चोटिल होता हिंदुत्व भी है मुस्लिम और इस्लाम से समानांतर दूरी भी है और तीन तलाक के अभिशाप से मुक्ति और इससे इतर गले लगाने की छटपटाहट भी। राम के आसरे रामराज्य के सपने भी है और भगवा रंग देश के नक्शे में भरने की जल्दबाजी के बीच नैतिकता पर पर्दा डालने की मजबूरी भी। आजादी के बाद की नाकामी भी जताना है पर उसी मजबूत आधार पर बहुमंजिला विकास की रफ्तार भी गिनाना है। एक तरफ अटल की पाठशाला का जिक्र है जिसे उनके विरोधी भी ग्रहण करने से नही चूकना चाहते थे और एक तरफ भाषणों में जिक्र उस सोने की चिड़िया का है जो आजाद तो है पर बंदिशें परतंत्र घोषित करती है। एक तरफ देश के लिए राजनीति का जोश, सम्मान,गरिमा,सुचिता,साहस,त्याग है दूसरी तरफ विचारधारा की जीत के लिए देश दांव पर लगाने की जिद,एक तरफ गौरवशाली इतिहास  बार बार कहता है देश नही इसके स्वर्णिम इतिहास को दोहराने की जरूरत है और एक तरफ देश बदलने लगातार जिक्र ??? कुर्सी ही सरकार है और सरकार के सत्ता में बने रहने का जुनून ,,,,,,,,,,,,अटल जी की पार्थिव देह पर सिसकियां भरने से अच्छा है अटल जी के व्यक्तित्व को विचारधारा का आधार बनाया जावें।

सांसे जिस्म छोड़ गई और जिस्म भी राख हो गया,
अटल थे,अटल है,अटल रहेंगें जो "भारत" हो गया।।

सादर नमन,,,,,,योगेश शर्मा,बनखेड़ी

शनिवार, 28 जुलाई 2018

अच्छा व्यक्तित्व बनकर अपने गुरु को दे गुरुदक्षिणा


संयम,संकल्प,आत्मस्वाभिमान,कर्तव्य का भाव  गुरु - शिष्य दोनों में बेहद आवश्यक
( योगेश शर्मा ) -  गुरुपूर्णिमा पर अपने अपने गुरुओं को श्रीफल भेंटकर उनका अभिनन्दन किया गया एवं मंदिरों में धार्मिक आयोजन किये गए। हर व्यक्ति के जीवन में गुरु का स्थान बेहद अहम होता है। विद्वान आचार्यों ने गुरु पूर्णिमा पर कुछ इस तरह संदेश दिया।  गुरु का वास्तविक आशय जहां मार्गदर्शक से है वही भविष्य निर्माता के तौर पर गुरु,शिक्षक एवं माता - पिता इस परिभाषा में सबसे ऊपर स्थान रखते है। पश्चिमी सभ्यता के दखल एवं चकाचौन्ध के बीच गुरु पूर्णिमा के महत्व अथवा सनातन धर्म की अमिट परंपरा का जिक्र बेहद जरूरी हैं। यह बेहद आवश्यक हैं कि इसे केवल और केवल धर्म एवं  ओपचारिकता से इतर भी समझा जाये। यह इस लिए क्योंकि धर्म के व्यवसायिक रूप ने जहां आस्था को प्रभावित किया हैं। उदाहरण के तौर पर बीते दिनों जिस तरह धर्म की आड़ में कथित व्यापार,चरित्र  का चेहरा भी सामने आया है। जबकि समाज में व्याप्त बुराइयों के प्रति सजग करने,मानवीयता,कर्तव्य एवं सामाजिक दायित्व की ओर प्रेरित करने तथा ईश्वर से जोड़ने वाले किरदार अथवा संत समाज के प्रति अटूट भरोषा भारतीय संस्कारों का हिस्सा हैं और रहेंगें शायद गुरु पूर्णिमा का अवसर यह आभास जरूर दिलाता हैं। दोनों ही सूरतों में गुरु एवं शिष्य की अपनी अपनी जिम्मेदारी बनती हैं। नए दौर की युवा पीढ़ी इस आदर्श उत्सव के महत्व को समझ सकें यही किसी गुरु के लिए सबसे बड़ी गुरु दक्षिणा है।
संस्कारवान बनना ही गुरु दक्षिणा -

वर्तमान समय में बेहतर व्यक्तित्व बनकर भी आपके गुरु,मार्गदर्शक,समाज,गावँ,परिवार का गौरव बढ़ा सकते है । योग्यता को तराशने की जरूरत होती है सिर्फ और सिर्फ गुरुमंत्र से कान फुकवाना काफी नही जब तक इस मंत्र का सार्थक अनुकरण न किया जावें।  सनातन धर्म मानवीय जीवन का पूर्वावलोकन है हर ग्रँथ अथवा शास्त्र प्रेरित करता हैं भीड़ में अलग पहचान बनाने की जैसे सफल व्यक्ति का गुरु सदैव गौरान्वित होता हैं क्योंकि शिष्य की कामयाबी ही गुरु की सफलता और गुरु दक्षिणा है।  हिंदू धर्म की खूबसूरती उदारता,समर्पण,प्रेम एवं रिश्तों की अहमियत, संवेदना,करुणा में बसती है गुरु पूर्णिमा पर संकल्प लें कि राह वह हो जिससे माता पिता का सम्मान हो जीवन में गुरु अति आवश्यक है भले ही वे माता पिता,शिक्षक,मित्र की भूमिका में हों।  मन के विचारों में आत्मस्वाभिमान,साहस,संयम,दया,निष्ठा हो तब मंदिरों में ईश्वर का सामना करें। प्रकृति,पशु,भूमि एवं कर्मभूमि के प्रति दायित्वान बनना हमारा धर्म जताता है यही गुरु पूर्णिमा पर गुरु की प्रेरणा होनी चाहिए।

शुक्रवार, 2 मार्च 2018

त्योहारों के मायने पीढ़ियों को सिखाने होंगे,,,

हिंदू धर्म के सभी त्योहारों का धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व हैं होली के पर्व का मौसम से  गहरा ताल्लुक हैं। बसंत का यह मौसम उमंग,उत्साह से भरपूर होता हैं आने वाले समय की चुनोतियों को स्वीकार करने एवं जीवन जीतने जरूरी हैं मन  उमंग और उत्साह से लवरेज रहें। होली का पर्व जहां मेलजोल,सुख - दुःख को बांटने रंगों के जरिये निराशा भरे बदरंगो के गुम करने का पर्व हैं। युवा पीढ़ियों को यह जताने की जवाहदेही तय करेगी की इन त्योहारों और रंगों का भविष्य क्या होगा। आधुनिकता के दौर में सिमटता त्योहारों का दायरा सार्वजनिक सदभाव एवं क्षेत्रीय परम्पराओं को न समेट दें यह चिंत्तन किसी न किसी को तो करना ही होगा  पीढ़ी दर पीढ़ी परंपरा को  दायित्व समझकर निर्वहन करते रहना तभी संभव हैं जब लोक परम्पराओं के महत्व की समझ बरकरार रहें।
होलिका दहन,गुलाल,अबीर,फाग,अनरय,गुझा,पपड़ी जेंसे शब्द कही खो न जाएं क्योंकि इन शब्दों का आधुनिकता में खो जाना या शाब्दिक अर्थ बदल देना भी सनातन धर्म पर चोट ही होगी। उदाहरण के तौर पर रंगों में नकलीपन कही चरित्र में उतर गया तो परंपरागत त्यौहार भी गावँ से सिमटकर गलियों और गलियों से सिमटकर चार दिवारी में घुट से जॉयेंगे।

भांग की जगह शराब -

वैसे भी भांग का परंपरागत उन्माद शराब के उपद्रव में केंसे तब्दील हो गया और हम इस बदलाव के आदी होते  चले गए। परिवार या विरासतों के मिले जुले उत्सव से इतर शराब ही आंनद का पर्याय बनता चला गया इस बात को भले ही समाज नजरअंदाज करे पर सच तो यही हैं। बारीकी से समझे तो आदतन शराब खोरों के लिए होली जेंसे उत्सव सिर्फ इतने मायने रखते हैं कि हर रोज रात में शराब के प्याले गटके जाते हैं और होली पर दिन में।

गुजिया पपड़ियां की गुम होती महक -

सप्ताह भर पहले से गुझिया की महक और पपड़ियों की   जगह रेडीमेड मिठाई ने ले ली पर जरा सोचिए वक्त के बदलते मिजाज का हवाला भी वर्षों पुराने परम्परागत व्यंजनों का स्वाद नही बदल सका। आधुनिकता का अधूरापन गावँ में भी विपरीत असर छोड़ रहा हैं गावँ की गलियों के हुरियारे खो चले हैं जबकि शहरी अंचल में ये गुम होती परम्पराएं हाईटेक उत्सव में टीव्ही सीरियलों में कैद हो चली हैं जिन्हें शायद सिर्फ महसूस भर किया जा सकता हैं। यूँ कहे की हमारे जमाने का जिक्र कर बदलाव की आहट तो महसूस होती ही हैं।

संवाद जरूरी हैं-
पीढ़ी दर पीढ़ी कम होता संवाद डिप्रेशन,अकेला पन एवं मानसिक कमजोर करता हैं यह जानते हुए की अपनी विरासत को आगे बढ़ाने जरूरी हैं जमीनी हुनर भी आगे बढे। त्योहारों का महत्व भी कुछ यही संकेत देता हैं पीढ़ियों में संवाद स्थापित हो तो बात बन जाए फिर भांग की ठंडाई का उन्माद और शराब की लाचारी,रंगों का नशा,गुझिया,पपड़ियों का स्वाद और इन सबके बीच होली का अतिमहत्वपूर्ण त्योहारी किरदार  आने वाली पीढ़ियों को जरूर समझ आएगा।

योगेश शर्मा,बनखेड़ी

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