बीते दो दिन पूर्व हमनें हर वर्ष की तरह स्वतंत्रता दिवस मनाया।,,,,इस दिन निःसन्देह हर भारतवासी अपने गौरवशाली इतिहास लिखने वाले महापुरुषों व सैन्य विभूतियों के शौर्य से गौरवान्वित महसूस करता हैं।
आजादी,,,,,का मतलब यह कतई नहीं होता कि हम राष्ट्र के प्रति अपनी जवाबदेही न समझें,,,,, देश बनता हैं प्रदेशों, महानगरों,कस्बों, गांव व मोहल्लों से ,,,,,,,,,,,जब यह सब कुछ राष्ट्र का अमूल्य अंग हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा हैं ,,,फिर भी हम सार्वजनिक संपत्ति को अपना समझने में सहज नहीं हैं। स्वच्छता हो या समृद्धि,विकास हो या पिछड़ापन ,,,,,,,जब तक व्यक्तिगत होगा वह राष्ट्र स्वतंत्र होकर भी समृद्ध नहीं कहा जा सकता।
हम इतिहास की बहस में उलझकर अपना वर्तमान स्वीकार ही नहीं कर पा रहें,,,,,,हैं। इतिहास को कोसकर हम वर्तमान की असफलता पर पर्दा डालने के आदि हैं। लोकतंत्र में जब किसी सरकार को जनमत दिया जाता हैं इसका मतलब भी यहीं हैं कि,,,,,जनभावनाओं पर खरा न उतरने की कीमत सत्तारूढ़ दल को सत्ता से उतकर चुकानी पड़ी।,,,,,,,फिर जिस सरकार को बहुमत मिला वह यह कहकर सफाई नहीं दे सकती कि,,,,,,,,यह तो पिछली सरकार में हुआ ?
बेरोजगारी,भृष्टाचार,महंगाई,,,,,,,एवं सरकार की नीतियों का आमजन पर क्या असर हुआ,,,,,,,,सरकार की इन सब पर राय क्या हैं ? ,,,,,,,,,,क्या कदम उठाए गए यह बताना भी सरकार की नैतिक जिम्मेदारी होती हैं। इसके विपरीत जो साहसिक निर्णय आपने लिए उनका श्रेय तो आमजन आपको जनादेश देने के साथ ही दे चुका हैं।
अब विषय आता हैं धर्म का,,,,,तो ,,,,,,राजनीति में धर्म,जाति, सम्प्रदाय ऐसे मुद्दे हैं जिनके जरिये बड़ी से बड़ी असफलता को छिपाने का सबसे कारगर व सरल मंत्र माना गया हैं। व्यक्तिगत आस्था ,,,,,,सार्वजनिक होते ही उन्माद पैदा करती हैं। कट्टरपंथ ,,,,,,,,,सदैव उस राष्ट्र की गरिमा का चीरहरण हैं जहां उसकी बुनियाद वासुदेव कुटुम्बकम या अनेकता में एकता के मंत्र ,,,, पर टिकी हो।
किसी भी व्यक्ति,धर्म,सम्प्रदाय,,,,,,,,अथवा निजता,उसके संवैधानिक अधिकारों एवं उसकी राष्ट्रभक्ति पर संदेह व्यक्त करेंगें,,,,बार बार चोट करेंगे या टारगेट करेंगें तो वह अपने ही देश में "आजादी ",,,,कैसे महसूस करेगा ,,,,,इसे समझने की जरूरत कल भी थीं और आज भी हैं।
योगेश शर्मा,बनखेड़ी